शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

मन्वंतर मंत्रमय उपनिसत स्वरुप स्तुति

 जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं-वही परमात्मा हैं।


यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्वमें रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी - सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन- निर्वाहमात्रके लिये उपभोग करना चाहिये । तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी हैं?  


भगवान् सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि- वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञानशक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियोंके हृदयमें रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असंग परमात्माकी शरण ग्रहण करनी चाहिए।


 जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे? जिनका न कोई अपना है और नपराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्वके आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर - सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं।


वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्तिके द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं।


इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कर्म्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है।


यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं।


भगवान् ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकारका लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिना किसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं।


श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मन एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत् -स्वरूप श्रुतिका


शुक्रवार, 10 जून 2022

गृहस्थ संबंधी सदाचार 1


1.मनुष्य गृहस्थाश्रम में रहे और गृहस्थ धर्म के अनुसार सब काम करें परंतु उन्हें भगवान के प्रति समर्पित कर दें और बड़े-बड़े संत-महात्माओं की सेवा भी करें।
2.अवकाश के अनुसार विरक्त पुरुषों में निवास करें और बार-बार श्रद्धा पूर्वक भगवान के अवतारों की लीला-सुधा का पान करता रहे।
3.जैसे स्वप्न टूट जाने पर मनुष्य स्वप्न के संबंधियों से आसक्त नहीं रहता-वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्संग के द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों -त्यों शरीर, स्त्री,पुत्र,धन आदि की आसक्ति स्वयं छोड़ता चले।क्योंकि एक-न-एक दिन यह छूटने वाले ही हैं। 
 4.बुद्धिमान पुरुष को आवश्यकता के अनुसार ही घर और शरीर की सेवा करनी चाहिए,अधिक नहीं। भीतर से विरक्त रहे और बाहर से रागी के समान लोगों में साधारण मनुष्यों जैसा ही व्यवहार करें।
5.माता-पिता,भाई-बंधु, पुत्र-मित्र, जाति वाले और दूसरे जो कुछ चाहें,भीतर से ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे। 

गृहस्थ संबंधी सदाचार 2


बुद्धिमान पुरुष वर्षा आदि के द्वारा होने वाले अन्नादि, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले स्वर्ण आदि, अकस्मात प्राप्त होने वाले द्रव्य आदि तथा सब प्रकार के धन भगवान के ही दिए हुए हैं-ऐसा समझकर प्रारब्ध के अनुसार उनका उपभोग करता हुआ संचय ना करें, उन्हें पूर्वोक्त साधु-सेवा आदि कर्मों में लगा दे।7.

मनुष्य का अधिकार केवल उतने ही धन पर हैं, जितने से उनकी भूख मिट जाए। इससे अधिक संपति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दंड मिलना चाहिए।8

हरिन, ऊंट, गधा, बंदर,चूहा,सरीसृप(रेंग कर चलने वाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान ही समझे। उनमें और पुत्रों में अंतर ही कितना है। 9

गृहस्थ मनुष्यों को भी धर्म, अर्थ और काम के लिए बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिए; बल्कि देश, काल और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाए,उसी से संतोष करना चाहिए 10

अपनी समस्त भोग सामग्री को कुत्ते, पतित और चांडाल पर्यंत सब प्राणियों को यथायोग्य बांटकर ही अपने काम में लाना चाहिए।और तो क्या, अपनी स्त्री को भी- जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी हैं -अतिथि आदि की निर्दोष सेवा में नियुक्त रखें।11

लोग स्त्री के लिए अपने प्राण तक दे डालते हैं,यहां तक कि अपने मां बाप और गुरु को भी मार डालते हैं। उस स्त्री पर से जिसने अपनी ममता हटा ली उसने स्वयं नित्य विजयी भगवान पर भी विजय प्राप्त कर ली।12

यह शरीर अंत में कीड़े, विष्ठा या राखकी ढेरी होकर रहेगा। कहां तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिए जिस में आसक्ति होती है वह स्त्री, और कहां अपनी महिमासे आकाशको भी ढक रखने वाला अनंत आत्मा।13



गुरुवार, 9 जून 2022

गृहस्थ ओं के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन


जो लोग  सदधर्म पालन की अभिलाषा रखते हैं उनके लिए इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन वाणी और शरीर से किसी प्रकार का कष्ट ना दिया जाए।8

इसी से कोई कोई यज्ञ तत्व को जानने वाले ज्ञानी ज्ञान के द्वारा प्रज्वलित आत्म संयम रूप अग्नि में इन कर्म मय यज्ञों का हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म कलापो से ऊपरत हो जाते हैं।9

जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणों का पोषण करने वाला निर्दय मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा।10

इसलिए धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्ध के द्वारा प्राप्त मुनि जनोंचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करें तथा उसी से सर्वदा संतुष्ट रहें।11

शनिवार, 19 मार्च 2022

15.ग्रहस्तों के लिए मोक्ष धर्म का वर्णन

 उपनिषदों में कहा गया है कि 

1.शरीर रथ है।

2.इंद्रियां घोड़े है।

3.इंद्रियों का स्वामी मन लगाम है।

4.शब्द आदि विषय मार्ग है।

5.बुद्धि सारथी है।

6.चित् ही भगवान के द्वारा निर्मित बांधने की विशाल रस्सी है। 

7.दस प्राण धुरी है। 

8.धर्म और अधर्म पहिए है।

9.इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है।

10. ओंकार ही उस रथी का धनुष हैं।

11.शुद्ध जीवात्मा बाण और 

12.परमात्मा लक्ष्य हैं।

(इस ओंकार के द्वारा अंतरआत्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिए)

राग, द्वेष, लोभ, शोक,मोह, मद,मान,अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा,प्रमाद, भूख और नींद- यह सब और ऐसे ही जीवो के और भी बहुत से शत्रु है। उनमें रजोगुण और तमोगुण प्रधान वृत्तियां अधिक है,कहीं-कहीं कोई-कोई सतोगुण प्रधान ही होती है।

यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इंद्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान है, तभीतक श्री गुरुदेव के चरण कमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान के आश्रयसे इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाए और फिर अत्यंत शांतभाव से इस शरीरका परित्याग कर दे।

नहीं तो तनिक भी प्रमाद हो जाने पर इंद्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखने वाला बुद्धि रूप सारथी रथके स्वामी जीवको उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथी और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्युसे अत्यंत भयावने घोर अंधकारमय संसारके कुएं में गिरा देंगे। देना चाहिए।)

मृत्यु को कैसे जीतें? वेद स्तुति चित्रा


1.जो लोग यह समझते हैं कि भगवान समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सब के आधार हैं और सर्वात्म भाव से भगवान का भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।

The devotees who worship God as the shelter of all beings disregard Death and place their feet on his head.

मन्वंतर मंत्रमय उपनिसत स्वरुप स्तुति

 जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते...