उपनिषदों में कहा गया है कि
1.शरीर रथ है।
2.इंद्रियां घोड़े है।
3.इंद्रियों का स्वामी मन लगाम है।
4.शब्द आदि विषय मार्ग है।
5.बुद्धि सारथी है।
6.चित् ही भगवान के द्वारा निर्मित बांधने की विशाल रस्सी है।
7.दस प्राण धुरी है।
8.धर्म और अधर्म पहिए है।
9.इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है।
10. ओंकार ही उस रथी का धनुष हैं।
11.शुद्ध जीवात्मा बाण और
12.परमात्मा लक्ष्य हैं।
(इस ओंकार के द्वारा अंतरआत्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिए)
राग, द्वेष, लोभ, शोक,मोह, मद,मान,अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा,प्रमाद, भूख और नींद- यह सब और ऐसे ही जीवो के और भी बहुत से शत्रु है। उनमें रजोगुण और तमोगुण प्रधान वृत्तियां अधिक है,कहीं-कहीं कोई-कोई सतोगुण प्रधान ही होती है।
यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इंद्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान है, तभीतक श्री गुरुदेव के चरण कमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान के आश्रयसे इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाए और फिर अत्यंत शांतभाव से इस शरीरका परित्याग कर दे।
नहीं तो तनिक भी प्रमाद हो जाने पर इंद्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखने वाला बुद्धि रूप सारथी रथके स्वामी जीवको उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथी और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्युसे अत्यंत भयावने घोर अंधकारमय संसारके कुएं में गिरा देंगे। देना चाहिए।)